में प्रकाशित किया गया था लावण्य मीमांसा

गजगामिनी

आ अपनी कटि से बाँध मुझे
ले चल मुझे उस नवलोक में
जहां शाखा तुम्हारी विकसित हो
मेरे बीज पनपते जीवन को !

हे गजगामिनी ! हे मोहिनी ! हे सुग्रीवा !
हे ऐश्वर्यरसदायिनी ! हे उर्वशीरूपधारिणी !
धन्य हो ! धन्य हो ! तेरे सूपकार की !

काया की रस तेरे
युवा की जिह्वा लोलुप करती है
यह रस ही तेरे मेदों की
किशोरों को तरुण करती हैं !

वृद्धों को यौवन मिलती है
देख गृहिणियां जलती भुनती हैं
तेरी एक झलक से ही
गलियां सर-रस बनती हैं !

तेरे पृष्ठ इतने सुन्दर हैं
अनुपम है तेरी कटि
मेरे स्वप्नलोक मे आनेवाली
कहीं तुम ही तो नहीं !

हे मेरे गीतलोक की रागिनी !
हे मिथुनवाहनधारिणी !
आ चले हमारे स्वप्नलोक
वहीँ तेरे अनुपम रस मे नहाएंगे !

    
    
    
    
    
    

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