आ अपनी कटि से बाँध मुझे
ले चल मुझे उस नवलोक में
जहां शाखा तुम्हारी विकसित हो
मेरे बीज पनपते जीवन को !
हे गजगामिनी ! हे मोहिनी ! हे सुग्रीवा !
हे ऐश्वर्यरसदायिनी ! हे उर्वशीरूपधारिणी !
धन्य हो ! धन्य हो ! तेरे सूपकार की !
काया की रस तेरे
युवा की जिह्वा लोलुप करती है
यह रस ही तेरे मेदों की
किशोरों को तरुण करती हैं !
वृद्धों को यौवन मिलती है
देख गृहिणियां जलती भुनती हैं
तेरी एक झलक से ही
गलियां सर-रस बनती हैं !
तेरे पृष्ठ इतने सुन्दर हैं
अनुपम है तेरी कटि
मेरे स्वप्नलोक मे आनेवाली
कहीं तुम ही तो नहीं !
हे मेरे गीतलोक की रागिनी !
हे मिथुनवाहनधारिणी !
आ चले हमारे स्वप्नलोक
वहीँ तेरे अनुपम रस मे नहाएंगे !
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itna saar garbhit paddhya likhne ki kya jarurat thi.pune me to aise hi bahut mithun vahan dharini mil jayegi. anyawz nice composition.keep it up..
तुमने लिखी है यह कविता ? शब्दों की बेहतरीन कारीगरी है यह .. वैसे तुम्हारी हिंदी भी काफी समृद्ध है, तुम्हारे स्वप्नों को ब्लॉग पर एक नयी काया मिलेगी …….नए ब्लॉग के शुभारम्भ के लिए हार्दिक बधाई और साधुवाद भी…
सप्रेम
किन्नू
@ किन्नू , बसंत :
धन्यवाद ! तुम्हे मैंने ये कविता पहले भी पढाई होगी | बहुत पहले की लिखी हुई है बस आज ब्लॉग पे डाला है |
I am no critic but the beauty of this verse is obvious.
Especially loved the way you structured it.
Congrats on the new blog…
and keep writing! 🙂